Sunday, September 16, 2007

 
Battle of Plassey, 23 June 1757

Battle that followed on from the accession of Suraj Dowlah as Nabob of Bengal (1756). Bengal had a long standing treaty with the East India Company, who held Calcutta, but the new Nabob ignored the treaty, and occupied Calcutta, after which he threw the captured servants of the Company into the infamous black hole of Calcutta. The East India Company responded with an army led by Robert Clive (Clive of India), which recaptured Calcutta, took Chandernagore off the French, and then caught up with the Nabob's army at the village of Plassey. Clive had just over 3,000 troops, of whom 2,000 were Indian, while the Nabob had over 50,000 men, with French artillery. However, the Nabob began the battle with an all out bombardment, using up all of his ammunition to no effect, The Bengali troops of the Nabob fled the battle without offering any further resistance, and the British were able to overwhelm the French artillery. Clive had won a famous victory against overwhelming odds, for the loss of between 20 and 70 men, an outstanding achievement that gained effective control over Bengal for the British, and drove the French out of northern India. Although there was little or no British government involvement in India at this time, the victory of the East India Company destroyed French trade in India, which helped Britain in the Seven Years War.

Source: http://www.historyofwar.org/articles/battles_plassey.html
 
नेताजी का ऐतिहासिक भाषण

1857 में हुई आज़ादी की पहली लड़ाई की 150वीं वर्षगाँठ इस वर्ष देश भर में मनाई जा रही है। इस मौके पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताजी द्वारा प्रथम संग्राम के देशभक्त नायक की स्मृति में दिए गए इस दुर्लभ भाषण को नेताजी के दिल के करीब की ज़ुबाँ में पेश करते हुए हमें खुशी हो रही है। "राष्ट्रभाषा के नाते काँग्रेस ने हिन्दी (या हिन्दुस्तानी) को अपनाया, इससे अंग्रेजी का महत्व समाप्त हुआ" - इस उपलब्धि का श्रेय नेताजी महात्मा गाँधी को देते हैं। यह भाषण नेताजी ने सम्राट-कवि बहादुरशाह ज़फ़र की मज़ार पर हुए आज़ाद हिन्द फौज की आनुष्ठनिक कवायद और जलसे में 11 जुलाई, 1944 को दिया था। नेताजी की 'ब्लड बाथ' नामक पुस्तिका में यह संकलित है। यह पुस्तिका पहले-पहल 'आज़ाद हिन्द सरकार' के 'प्रेस, प्रकाशन तथा प्रचार विभाग' द्वारा बर्मा से प्रकाशित हुई थी तथा नेताजी जन्मशती के मौके पर, 1996 में, जयश्री प्रकाशन ( 20 ए प्रिंस गुलाम मोहम्मद रोड, कोलकाता - 700026) द्वारा पुनर्प्रकाशित की गई है। हिन्दी अनुवाद : अफ़लातून।

पिछले साल सितम्बर महीने में हमने भारत की आज़ादी की पहली जंग और इंकलाब के रहनुमा सम्राट बहादुरशाह की मज़ार पर आनुष्ठनिक कवायद का आयोजन किया था। पिछले साल हुआ जलसा भारत की आज़ादी के लिए हो रहे संघर्ष के लिहाज से ऐतिहासिक था चूँकि आज़ाद हिन्द फौज की टुकड़ियाँ मौजूद थीं और जलसे में उन्होंने शिरकत भी की थी। मैं उस जलसे को ऐतिहासिक क़रार दे रहा हूँ चूँकि वह पहला मौका था जब हिन्द की नई इन्कलाबी फौज द्वारा भारत की पहली इंकलाबी फौज के सेनापति को श्रद्धांजलि दी गई। पिछले साल की कवायद में हम में से जो लोग भी शरीक थे उन लोगों ने सम्राट बहादुरशाह के काम को आगे बढ़ाने और भारत को ब्रिटिश गुलामी के जुए से निजात दिलाने की क़सम ली थी। मुझे इस बात की खुशी और फक्र है कि उस कसम को आंशिक तौर पर पूरा करने में हमें कामयाबी मिली है। पिछले साल के जलसे में मौजूद ज्यादातर सैनिक इस वक्त अग्रिम मोर्चा संभाले हुए हैं। भारत की सरहद को पार कर आज़ाद हिन्द फौज आज मातृभूमि की मिट्टी पर लड़ रही है।

इस साल के आयोजन के साथ यह असाधारण, शायद दैविय संयोग था कि सम्राट बहादुरशाह की पुण्य तिथि और 'नेताजी सप्ताह' एक साथ पड़े हैं। 'नेताजी सप्ताह' के दौरान समूचे पूर्वी एशिया में रहने वाले भारतीय भारतीयों ने मुकम्मिल आज़ादी हासिल करने तक अपनी लड़ाई जारी रखने का विधिवत संकल्प लिया है। यह दैविय संकेत है कि आज़ादी के जंग के पहले सेनापति की समाधि का स्थल भारत की आज़ादी की आखिरी जंग का मुख्य केन्द्र है। इसी पवित्र अड्डे से हमारी अपनी मातृभूमि की ओर अग्रसर है। आज़ाद हिन्द फौज की आनुष्ठनिक कवायद में इसी स्थान पर पुन: जुट कर हम अपने संकल्प की आंशिक पूर्ति की खुशी महसूस करने के साथ-साथ भारत की भूमि को अनचाहे अंग्रेजों से निजात दिलाने तक अनवरत संघर्ष के लिए कमर-कस कर तैयार हो रहे हैं।

अंग्रेज इतिहासकारों ने 1857 की लड़ाई के बारे में यह दुष्प्रचार कर रखा है कि वह अंग्रेज फौज में सेवारत भारतीय सैनिकों का विद्रोह-मात्र था। हकीकत है कि वह एक कौमी इन्कलाब था जिसमें भारतीय सैनिकों के साथ-साथ नागरिकों ने भी शिरकत की थी।

यहाँ 1857 के घटनाक्रम पर एक नज़र डालना वाजिब होगा। अंग्रेज इतिहासकारों ने 1857 की लड़ाई के बारे में यह दुष्प्रचार कर रखा है कि वह अंग्रेज फौज में सेवारत भारतीय सैनिकों का विद्रोह-मात्र था। हकीकत है कि वह एक कौमी इन्कलाब था जिसमें भारतीय सैनिकों के साथ-साथ नागरिकों ने भी शिरकत की थी। इस राष्ट्रव्यापी जंग में कई राजा शरीक हुए जबकि यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि कई राजा खुद को दरकिनार किए रहे। इस जंग के शुरुआती दौर में कई फतह हुईं, अन्तिम दौर में ही बड़ी ताकत के बल पर हमें पराजित किया गया। किसी क्रान्ति की तवारीख़ में ऐसा होना बिलकुल असामान्य नहीं है। दुनिया के इतिहास में यह मुश्किल से मिलेगा जब क्रान्ति पहले संघर्ष में ही कामयाब हो गयी हो। "आज़ादी की लड़ाई एक बार आरम्भ होती है तो पुश्त-दर-पुश्त चलती है"। बवक्तन यदि इंकलाब नाकामयाब भी होता है या दबा दिया जाता है तब भी उसके कुछ सबक हासिल होते हैं। आगे आने वाली पीढ़ियाँ इन सबक को लेकर अपनी लड़ाई ज्यादा असरकारक तरीके से, ज्यादा तैयारी के साथ फिर से खड़ी करती हैं। हम ने 1857 की नाकामयाबी से सबक लिया है और इस तजुर्बे का इस्तेमाल भारत की आज़ादी की इस आखिरी जंग में किया है।

यह सोचना भूल होगी कि 1857 में एक दिन अचानक लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ हथियार उठा लिए। कोई भी क्रान्ति जल्दबाजी में या अललटप्पू तरीके से नहीं लायी जाती है। 1857 के हमारे रहनुमाओं ने अपने तईं पूरी तैयारी की थी, लेकिन अफ़सोस कि वह पर्याप्त नहीं थी। उस पवित्र युद्ध के एक प्रमुख नेता नाना साहब ने मदद और सहयोग हासिल करने के मक़सद से युरोप तक की यात्रा की थी। दुर्भाग्यवश उन्हें इस कोशिश में कामयाबी हासिल नहीं हुई और नतीजतन 1857 में जब क्रान्ति शुरु हुई, तब अंग्रेजों का बाकी दुनिया से कोई झगड़ा नहीं था और वे अपनी पूरी ताकत और संसाधन हिन्द के लोगों को कुचलने में लगा सके। मुल्क की भीतर जनता और भारतीय सैनिकों के बीच काबिले गौर होशियारी के साथ गुप्त सन्देश प्रचारित कर दिये गये थे। इस वजह से संकेत होते ही देश के कई हिस्सों में एक साथ लड़ाई शुरु हो सकी। फ़तह पर फ़तह हासिल होती गयी। उत्तर भारत के महत्वपूर्ण शहर अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो गये तथा उनमें इन्कलाबी फौज ने जीत का परचम लहराया। अभियान के पहले चरण में हर जगह इन्कलाब को कामयाबी मिली। दूसरे चरण में जब दुश्मन का जवाबी हमला शुरु हुआ तब हमारे सैनिक टिक न सके। तब ही यह पता चला कि क्रान्तिकारियों ने एक राष्ट्रव्यापी रणनीति नहीं बनाई थी तथा उस रणनीति के संचालन और समन्वय के लिए एक गतिमान नेता का अभाव था। देश के कई भागों के राजा निष्क्रीय और उदासीन रहे। बहादुरशाह ने इस बाबत जयपुर, जोधपुर, बिकानेर, अलवर आदि के राजाओं को लिखा :

"मेरी प्रबल आरज़ू है कि अंग्रेज किसी भी कीमत पर, किन्हीं भी उपायों से हिन्दुस्तान से खदेड़ दिए जायें। मेरी उत्कट कामना है कि समूचा हिन्दुस्तान आज़ाद हो। इस उद्देश्य से छेड़ा गए इन्कलाबी युद्ध के माथे पर विजय का सेहरा तब तक बँध नहीं सकता जब तक ऐसा कोई व्यक्ति सामने नहीं आता जो पूरी तहरीक की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले सके, राष्ट्र की विभिन्न शक्तियों को संगठित कर सके तथा पूरी जनता को इस जागृति के दौरान राह दिखाये। अंग्रेजों को हटाने के बाद भारत पर राज करने की मेरी कोई तमन्ना नहीं है। आप सभी अपनी म्यानों से तलवार खींच कर दुश्मन को भगाने के लिए तैयार हो जायें तब मैं तमाम शाही-हकूक भारतीय राजाओं के संघ के हक़ में छोड़ने के लिए तैयार हूँ।"

यह ख़त बहादुरशाह ने अपने हाथ से लिखा था। देशभक्ति और त्याग की भावना से सराबोर इस पत्र को पढ़कर हर आज़ादी-पसन्द हिन्दुस्तानी का सिर प्रशंसा और अदब से झुक जाएगा।

बहादुरशाह बूढ़े और कमजोर हो चुके थे और इसलिए उन्हें लगा कि खुद इस जंग का संचालन करना उनके बूते के बाहर होगा। उन्होंने छ: सदस्यीय समिति गठित की जिसमें तीन सेनापति और तीन नागरिक-प्रतिनिधि थे। इस समिति को पूरे अभियान को संचालित करने की जिम्मेदारी दी गई। उनके द्वारा किए गए तमाम प्रयास निष्फल रहे क्योंकि भारत की पूर्ण आजादी के लिए परिस्थितियाँ परिपक्व नहीं हुई थीं।

एक और तथ्य इस बुजुर्ग नेता के इन्कलाबी जज़्बे और जोश का द्योतक है। उत्तर प्रदेश के बरेली शहर की दीवारों पर अंकित बहादुरशाह का यह फ़रमान गौरतलब है :

" हमारी इस फौज में छोटे-बड़े का भेद भूलकर बराबरी के आधार को नियम माना जाएगा चूँकि इस पाक जंग में तलवार चलाने वाला हर शक्स समान रूप से प्रतापी है। इसमें शामिल सभी लोग भाई-भाई हैं, उनमें अलग-अलग वर्ग नहीं होंगे। इसलिए मैं अपने सभी हिन्दुस्तानी भाइयों से आह्वान कर रहा हूँ जागो तथा दैवी आदेश और सर्वोच्च दायित्व का निर्वाह करने के लिए रण भूमि में कूद पड़ो। "

मैंने इन तथ्यों का हवाला इसलिए दिया है ताकि आप यह जान सकें कि मौजूदा आज़ाद हिन्द फौज की बुनियाद 1857 में पड़ चुकी थी। आज़ादी की इस आखिरी जंग में हमें 1857 की जंग और उसकी खामियों से सबक लेना होगा।

इस बार दैव-योग हमारे पक्ष में है। शत्रु कई मोर्चों पर जीवन-मृत्यु के संघर्ष में उलझा हुआ है। देश की जनता पूरी तरह जागृत है। आज़ाद हिन्द फौज एक अपराजेय शक्ति है और उसके सभी सदस्य अपने राष्ट्र की मुक्ति के साझा प्रयत्न के लिए एकताबद्ध हैं। पूर्ण विजय हासिल करने तक चलने वाले इस अभियान के लिए हम एक दूरगामी साझा रणनीति से लैस हैं। हमारा आधार-अड्डा अच्छी तरह संगठित है और सबसे महत्वपूर्ण है कि अपना जौहर दिखाने की प्रेरणा के लिए हमारे पास बहादुरशाह की यादें और मिसाल है। अंतिम विजय हमारी होगी इसमें क्या कोई शक रह जाता है?

यदि आप चाहते हैं कि आपके देशवासी अतिमानवीय साहस और शौर्य की ऊँचाइयों को छू सकें तब आपको उन्हें देश के प्रति प्रेम के साथ - साथ शत्रु से घृणा करना भी सिखाना होगा।

जब मैं 1857 के घटनाक्रम का अध्ययन करता हूँ और क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और सितम को याद करता हूँ तब मेरा खून खौल उठता है। अगर हम मर्द हैं, तब 1857 और उसके बाद के वीरों पर अंग्रेजों द्वारा ढाये गए जुल्म और बर्बरता का पूरा बदला ले कर रहेंगे। अंग्रेजों ने निर्दोष व आज़ादी पसन्द हिन्दुस्तानियों का खून न सिर्फ युद्ध के दौरान बहाया बल्कि उसके बाद भी अमानवीय अत्याचार किए। उन्हें इन अपराधों की कीमत चुकानी होगी। हम भारतीय, शत्रु से पर्याप्त घृणा नहीं करते। यदि आप चाहते हैं कि आपके देशवासी अतिमानवीय साहस और शौर्य की ऊँचाइयों को छू सकें तब आपको उन्हें देश के प्रति प्रेम के साथ - साथ शत्रु से घृणा करना भी सिखाना होगा।

इसलिए मैं खून माँगता हूँ। शत्रु का खून ही उसके अपराधों का बदला चुका सकता है। किन्तु हम खून तब ही ले सकते हैं जब खून देने के लिए तैयार हों। इस युद्ध में बहने वाला हमारे वीरों का खून ही हमारे किए पापों को धो डालेगा। हमारा आगामी कार्यक्रम खून देने का है। हमारी आजादी की कीमत हमारे वीरों के खून की कीमत है। हमारे वीरों के खून, उनकी बहादुरी और पराक्रम ही भारत की जनता द्वारा ब्रिटिश आतताइयों और जुल्मियों से बदला लेने की माँग पूरा करना सुनिश्चित करेंगे।

वृद्ध बहादुरशाह ने पराजय के बाद इसी पैगम्बरी अन्तर्दृष्टि के साथ कहा था :

" गाजियों में भी रहेगी, जब तलक ईमान की,
तख़्ते लन्दन तक चलेगी, तेग हिन्दुस्तान की। "

जय हिन्द

http://www.nirantar.org/0507/vatayan/netaji

This page is powered by Blogger. Isn't yours?

Subscribe to Posts [Atom]